किस क़द्र सादा हैं हम, कैसी क़ज़ाएं माँगें
दुश्मनों से भी मुहब्बत की अदाएं माँगें
हाल यह है कि हुआ पल का गुज़रना भी मुहाल
कितने ख़ुशफहम हैं, जीने की दुआएं मांगें
इस क़दर क़हत मसीहाओं का पहले तो न था
अब तो बीमारों से बीमार दवाएं मांगें
उनके अंदाज़ निराले हैं ज़माने भर से
ख़ुद सितम ढाएंगे और हम से वफाएं मांगें
दल्के महनत पे सदा हमको रहा फ़क्र "हफ़ीज़"
हम न अग़यार से गुलरंग कबाएं मांगें
-हफ़ीज़ सिद्दीक़ी
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मुहाल : कठिन
ख़ुशफ़हम : ख़ुशियों की आशाएं रखने वाला
क़हत : आकाल
दल्के : गुदड़ी
फ़क्र : गर्व
अग़यार : गैर
कबाएं : चादर, चोगा
5 comments:
उनके अंदाज़ निराले हैं ज़माने भर से
ख़ुद सितम ढाएंगे और हम से वफाएं मांगें
बहुत बढिया
उनके अंदाज़ निराले हैं ज़माने भर से
ख़ुद सितम ढाएंगे और हम से वफाएं मांगें
Bahut khoob.
बहुत खूब कहा ''इस क़दर क़हत मसीहाओं का पहले तो न था---
अब तो बीमारों से बीमार दवाएं मांगें, यह शे'र आजके हालात पर बहुत ही उमदा है, लाजवाब, धन्यवाद
यशवन्त मेहता "फ़कीरा" जी
और
अमिताभ मीत जी
आप का होंसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया
मो. उमर साहब आपने बिल्कुल सही फरमाया
आपने "हफ़ीज़" साहब की इस ग़ज़ल के मकसद को छू लिया
शुक्रिया।
सिद्दीक़ी साहब, आदाब
उनके अंदाज़ निराले हैं ज़माने भर से
ख़ुद सितम ढाएंगे और हम से वफाएं मांगें
बहुत अच्छे शेर हैं सभी....ये खास तौर पर पसंद आया
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महफ़िल में आपका इस्तक़बाल है।