कितने मौसम बीत गये हैं दुख सुख की तन्हाई में
दर्द की झील नहीं सूखी है आँखों की अंगनाई में
बीती रातों के झोंके आए जब मेरी अंगनाई में
दिल के सौ सौ टांके टूटे एक एक अंगड़ाई में
सच सच कहना ऐ दिले नादां बात है क्या रुसवाई में
सेंकड़ों आँखें झांक रही हैं क्यों मेरी तन्हाई में
रूप की धूप भी काम न आई, दर्द की लहरें जाग उठीं
दिल की चोट उभर आई है यादों की पुरवाई में
सोते जागते एक एक रग में बिजली सी लहराती है
किसके बदन की ख़ुशबू फैली आज मेरी तन्हाई में
अपने जलते सपनों की परछाईं मिली उसमें "उनवान"
जब भी झांका उस की ठंडी आँखों की गहराई में
: उनवान चिश्ती
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8 comments:
यह रचना/गीत मुझे बहुत पसंद आया...
सोते जागते एक एक रग में बिजली सी लहराती है,,
किसके बदन की ख़ुशबू फैली आज मेरी तन्हाई में
कुछ तो बदलेगा पर भी कुछ बदलने वाली पोस्ट डालें
बीती रातों के झोंके आए जब मेरी अंगनाई में
दिल के सौ सौ टांके टूटे एक एक अंगड़ाई में
सच सच कहना ऐ दिले नादां बात है क्या रुसवाई में
सेंकड़ों आँखें झांक रही हैं क्यों मेरी तन्हाई मे
वाह वाह हर एक शेर लाजवाब है शुभकामनायें
फिर एक बेहतरीन ग़ज़ल। आपका आभार।
चिश्ती साब की ये ग़ज़ल पहले कहां पढ़ी, याद नहीं आ रहा...लेकिन एक बार फिर से इन अशआरों ने मन मोहा।
सिद्दीक़ी साहब, आदाब
मैयारी कलाम की
शानदार महफिल सजा रखी है आपने
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
"रूप की धूप भी काम न आई, दर्द की लहरें जाग उठीं
दिल की चोट उभर आई है यादों की पुरवाई में"
गहरी संवेदना से लिखी पंक्तियाँ । आभार ।
महफ़िल के दोस्तों का शुक्रिया
बेशक आपके ख़्यालों का इज़हार मेरे हौसले को बढ़ाता है
और आपके लिए उम्दा से उम्दा ग़ज़लों को पेश करने का मेरा वादा है।
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महफ़िल में आपका इस्तक़बाल है।