Thursday, December 10, 2009

एक ग़ज़ल

मेरी ज़ुबां से मेरी दास्तां सुनो तो सही

यकीं करो न करो मेहरबां सुनो तो सही


चलो ये माना कि मुजरिमे मुहब्बत हैं

हमारे जुर्म का हमसे बयां सुनो तो सही


बनोगे मेरे दोस्त तुम, दुश्मनों एक दिन

मेरे हयात की आबो गुहा सुनो तो सही


लबों को  सी के जो बैठे हैं महफ़िल में

कभी उनकी भी खामोशियां सुनो तो सही

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1 comments:

मनोज कुमार said...

लबों को सी के जो बैठे हैं महफ़िल में
कभी उनकी भी खामोशियां सुनो तो सही
एक से एक लाजवाब शेरों की ये ग़ज़ल पढ़ कर बस वाह वाह करते रहने का मन कर रहा है।

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महफ़िल में आपका इस्तक़बाल है।