कभी मुझ को साथ लेकर कभी मेरे साथ चलके
वो बदल गए अचानक मेरी ज़िन्दगी बदलके
हुए जिस पे महरबां तुम कोई ख़ुशनसीब होगा
मेरी हसरतें तो निकलीं मेरे आंसुओं में ढलके
तेरी ज़ुल्फ़ ओ रुख़ के कुरबां दिले ज़ार ढूंढता है
वही चम्पई उजाले , वही सुरमई धुंधलके
कोई फूल बन गया है, कोई चांद, कोई तारा
जो चराग़ बुझ गये हैं तेरी अंजुमन में जलके
तेरी बेझिझक हंसी से न किसी का दिल हो मैला
यह नगर है आईनों का यहां सांस लेना संभल के
- अहसान दानिश
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हसरतें - अभिलाषाएं
रुख़ - चेहरा
दिले ज़ार - कमज़ोर दिल
अंजुमन - महफिल
2 comments:
सिद्दकी साहब मै नही जान्ता कि ये गजल किसने लिखी है क्योकि अहसान जी को मै जानता नही और ये भी नही पता चल पा रहा कि आप हि अहसान साहब है या कोइ और शख्स आप्कि प्रोफ़ाइल से भी कुछ समझ नही आया
गजल मुझे खास पसन्द आई बधाई कबूल करे
गजल के बारे मे अधिक जान्कारी चाहिये हो तो गजल गुरु श्री पन्कज सुबीर जी के मश्हूर ब्लोग सुबीर सवाद सेवा पर जा सक्ते है लिन्क मेरे ब्लोग से पा सकते है
आप्के ब्लोग को पढ कर अच्छा लगा
बेहतरीन। बधाई।
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महफ़िल में आपका इस्तक़बाल है।