Tuesday, December 15, 2009

जीना है कैसे मुझको


जीना है कैसे  मुझको तन्हा  न  फैसला कर

ख़ुशियों से राय ले ले ग़म से भी मशवरा कर


दुनिया की भीड़ में मैं गुम हो के रह गया हूं

ऎ  आईने  मुझे  तू  माज़ी   ज़रा अता कर


थक कर न बैठ जाना राहों में ऎ मुसाफिर

मंज़िल तुझे मिलेगी चलने का हौसला कर


यादों के गुलिस्तां से ख़शबू सी आ रही है

क्यों  दूर  हो गये  तुम मेरे  क़रीब आ कर


कर लेना लाख कोशिश तुम भूलने की मुझको

याद  आयेंगे  तुम्हें  हम  देखो  ज़रा भुलाकर

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माज़ी - बीता हुआ कल, इतिहास

2 comments:

मनोज कुमार said...

थक कर न बैठ जाना राहों में ऎ मुसाफिर

मंज़िल तुझे मिलेगी चलने का हौसला कर
ग़ज़ल पूरी अच्छी लगी।

Anonymous said...

कर लेना लाख कोशिश तुम भूलने की मुझको



याद आयेंगे तुम्हें हम देखो ज़रा भुलाकर


खूब।

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