तय होंगे किस तरह से मराहिल कहा न जाए
इस तीरगी में क्या है हासिल कहा न जाए
ख़ुद दे दिये हैं मैंने उसे हाथ काट कर
वो लिख दिया है जो सैरे महफ़िल कहा न जाए
पत्थर हुए वो लफ़्ज के थे जीते जागते
इस ख़ामोशी से है क्या हासिल कहा न जाए
अब तक तो चल रहे हैं तेरे साथ साथ हम
आयेगी किस जगह हदे फ़ासिल कहा न जाए
नशा है या के ज़हर है फ़िज़ा में मिला हुआ
कुछ है हर एक चीज़ में शामिल कहा न जाए
आख़िर कहीं तो बैठ गए पांव तोड़ कर
फिर क्या कहें अगर इसे मंज़िल कहा न जाए
ये और बात कुछ भी दिखाई न दे सके
आंखें खुली हुई हों तो ग़ाफ़िल कहा न जाए
-शहज़ाद अहमद
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मराहिल - रुकावटें
तीरगी - अंधेरे
मुकाबिल - सामने
सैरे - तमाशे
फ़ासिल - जुदा करने वाली
फ़िज़ा - वातावरण
2 comments:
ग़ज़ल क़ाबिले-तारीफ़ है।
वाह.........खूब
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महफ़िल में आपका इस्तक़बाल है।