Sunday, December 6, 2009

कहा न जाए


तय होंगे किस तरह से मराहिल कहा न जाए

इस  तीरगी  में  क्या  है हासिल कहा न जाए


ख़ुद  दे  दिये  हैं  मैंने  उसे  हाथ  काट  कर

वो लिख दिया है जो सैरे महफ़िल कहा न जाए


पत्थर  हुए  वो  लफ़्ज  के  थे  जीते  जागते

इस ख़ामोशी से है क्या हासिल कहा न जाए


अब तक तो चल रहे हैं तेरे साथ साथ हम

आयेगी किस जगह हदे फ़ासिल कहा न जाए


नशा है या के ज़हर है फ़िज़ा में मिला हुआ

कुछ है हर एक चीज़ में शामिल कहा न जाए


आख़िर  कहीं  तो  बैठ  गए  पांव  तोड़  कर

फिर क्या कहें अगर इसे मंज़िल कहा न जाए


ये  और  बात  कुछ  भी  दिखाई  न  दे  सके

आंखें खुली हुई हों तो ग़ाफ़िल कहा न जाए


                                                                       -शहज़ाद अहमद
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मराहिल - रुकावटें

तीरगी - अंधेरे

मुकाबिल - सामने

सैरे - तमाशे

फ़ासिल - जुदा करने वाली

फ़िज़ा - वातावरण

2 comments:

मनोज कुमार said...

ग़ज़ल क़ाबिले-तारीफ़ है।

Anonymous said...

वाह.........खूब

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महफ़िल में आपका इस्तक़बाल है।