Tuesday, February 23, 2010

किस क़द्र सादा हैं हम

किस  क़द्र  सादा  हैं  हम,  कैसी  क़ज़ाएं  माँगें

दुश्मनों  से   भी   मुहब्बत   की  अदाएं  माँगें


हाल यह है कि हुआ पल का गुज़रना भी मुहाल

कितने  ख़ुशफहम  हैं,  जीने  की  दुआएं मांगें


इस क़दर क़हत मसीहाओं का पहले तो न था

अब   तो   बीमारों   से   बीमार  दवाएं   मांगें


उनके   अंदाज़   निराले   हैं   ज़माने   भर   से

ख़ुद  सितम  ढाएंगे  और  हम  से वफाएं मांगें


दल्के महनत पे सदा हमको रहा फ़क्र "हफ़ीज़"

हम  न   अग़यार   से   गुलरंग   कबाएं   मांगें

                                           -हफ़ीज़ सिद्दीक़ी
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मुहाल  :  कठिन
ख़ुशफ़हम  :  ख़ुशियों की आशाएं रखने वाला
क़हत  :  आकाल
दल्के  :  गुदड़ी
फ़क्र  :  गर्व
अग़यार  :  गैर
कबाएं  :  चादर, चोगा