ग़म रात - दिन रहे तो ख़ुशी भी कभी रही
एक बेवफा से अपनी बड़ी दोस्ती रही
उनसे मिलने की शाम घड़ी दो घड़ी रही
और फिर जो रात आई तो बरसों खड़ी रही
शामे विसाल दर्द ने जाते हुए कहा
कल फिर मिलेंगे दोस्त अगर ज़िन्दगी रही
बस्ती उजड़ गई भी तो दरख़्त हरे रहे
दर बंद हो गए भी तो खिड़की खुली रही
‘अख़्तर’ अगरचे चारों तरफ तेज़ धूप थी
दिल पुरख़्याले यार की शबनम पड़ी रही
- सईद अहमद ‘अख़्तर’
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विसाल - मिलन
पुरख़्याल - याद से भरी
2 comments:
आदाब।
शामे विसाल दर्द ने जाते हुए कहा
कल फिर मिलेंगे दोस्त अगर ज़िन्दगी रही
क्या ख़ूब लिखा है आपने। बस वाह-वाह करते रहने का मन कर रहा है। बहुत अच्छा। तो ‘अख़्तर’ साहब कल फिर मिलेंगे अगर ज़िन्दगी रही।
बस्ती उजड़ गई भी तो दरख़्त हरे रहे
दर बंद हो गए भी तो खिड़की खुली रही
बहुत खूब।
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महफ़िल में आपका इस्तक़बाल है।