Saturday, December 19, 2009

एक ग़ज़ल

दोस्त बनकर भी नहीं साथ निभाने वाला

वही  अंदाज़  है  ज़ालिम का ज़माने वाला


कया कहें कितने मरासिम थे हमारे उससे

वो जो एक शख़्स है मुंह फैर के जाने वाला


क्या ख़बर थी जो मेरी जां में घुला रहता है

है   वही   सरे - दार  भी  लाने  वाला


मैंने देखा है बहारों में चमन को जलते

है कोई ख़्वाब की ताबीर बताने वाला


तुम तक्ल्लुफ को भी इख़्लास समझते हो "फराज़"

दोस्त होता नहीं हर साथ निभाने वाला


                                                                                       - अहमद फराज़
-------------------------------------------------------------------------------------

1 comments:

Post a Comment

महफ़िल में आपका इस्तक़बाल है।