दोस्त बनकर भी नहीं साथ निभाने वाला
वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़माने वाला
कया कहें कितने मरासिम थे हमारे उससे
वो जो एक शख़्स है मुंह फैर के जाने वाला
क्या ख़बर थी जो मेरी जां में घुला रहता है
है वही सरे - दार भी लाने वाला
मैंने देखा है बहारों में चमन को जलते
है कोई ख़्वाब की ताबीर बताने वाला
तुम तक्ल्लुफ को भी इख़्लास समझते हो "फराज़"
दोस्त होता नहीं हर साथ निभाने वाला
- अहमद फराज़
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1 comments:
बहुत खूब।
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महफ़िल में आपका इस्तक़बाल है।