मैं पत्थरों पे लहू का निशान रख दूंगा
दहकते शोलों पे अपना मकान रख दूंगा
मैं तेरे दिल में खुला आसमान रख दूंगा
कटे परों में बला की उड़ान रख दूंगा
मैं ख़ुद काट के अपनी ज़बान रख दूंगा
लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी
ज़िन्दगी शम्मा की सूरत हो ख़ुदाया मेरी
हो मेरे दम से यूं ही मेरे वतन की ज़ीनत
जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत
ज़िन्दगी हो मेरी परवाने की सूरत या रब
इल्म की शम्मा से हो मुझको मुहब्बत या रब
हो मेरा काम ग़रीबों की हिमायत करना
दर्दमन्दों से ज़ईफों से मुहब्बत करना
मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको
नेक जो राह हो उस रह पर चलाना मुझको
मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको
नेक जो राह हो उस रह पर चलाना मुझको......
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दर्दमन्दों - जो पीड़ा में हों
ज़ईफों - बुज़ुर्गों
दिल का रोना ठीक नहीं है,
मुंह को कलेजा आने दो
थमते थमते अश्क थमेंगे,
नासेह को समझाने दो
कहते ही कहते हाल कहेंगे,
ऐसी तुम्हें क्या जल्दी है
दिल को ठिकाने होने दो,
और आप में हमको आने दो
खु़द से गिरेबां फटते थे,
अक्सर चाक हवा में उड़ते थे
अब के जुनूं को होश नहीं है,
आई बहार तो आने दो
अगर दिल गुमगुश्ता में,
ठंडी आहें भरता था
हंस के सितमगर कहता क्या है,
बात ही क्या है जाने दो
दिल के असर को लूट लिया है,
शोख़ निगाह एक काफिर ने
कोई ना इसको रोने से रोको,
आग लगी है बुझाने दो
- असर लखनवी
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नासेह - नसीहत देने वाला
गुमगुश्ता - डूबा हूआ
सितमगर - अत्याचारी
काफिर - नास्तिक
अब ये होगा शायद अपनी आग में ख़ुद जल जायेंगे
तुम से दूर बहुत रहकर भी क्या खोया क्या पायेंगे
दुख भी सच्चे सुख भी सच्चे फिर भी तेरी चाहत में
हमने कितने धोके खाये कितने धोके खायेंगे
अक़्ल पे हम को नाज़ बहुत था लेकिन कब ये सोचा था
इश्क के हाथों ये भी होगा लोग हमें समझायेंगे
कल के दुख भी कौनसे बाक़ी आज के दुख भी कै दिन के
जैसे दिन पहले काटे थे ये दिन भी कट जायेंगे
हम से आबला-पा जब तन्हा घबरायेंगे सहरा में
रास्ते सब तेरे ही घर की जानिब को मुड़ जायेंगे
आंख़ों से औझल होना क्या दिल से औझल होना है
मुझसे छूट कर भी अहले ग़म क्या तुझसे छुट जायेंगे
-अहमद हमदानी
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आबला-पा - पांव के छालों वाले
जानिब - तरफ
इंसान में हैवान
यहां भी है वहां भी
अल्लाह निगेहबान
यहां भी है वहां भी
खूंखार दरिन्दो के
फ़क़त नाम हैं अलग
शहरों में बियाबान
यहां भी है वहां भी
रहमान की कुदरत हो
या भगवान की मूरत
हर खेल का मैदान
यहां भी है वहां भी
हिन्दू भी मज़े में
हैं मुसलमां भी मज़े में
इन्सान परेशान
यहां भी है वहां भी
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निदा फ़ाज़ली
शायरे आज़म
-: मिर्ज़ा असदुल्ला ख़ां "ग़ालिब"
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सितारे जो समझते हैं ग़लतफहमी है उनकी ।
फ़लक पे आह पहुंची है मेरी, चिंगारिय़ां होकर ॥
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घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां होता
बहर अगर बहर न होता तो दरिया होता
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दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
जमा करते हो क्य़ूं रकीबों को
इक तमाशा हुआ, गिला न हुआ
हम कहां किस्मत आज़माने जायें
तू ही जब ख़न्जर-आज़मा न हुआ
जान दी, दी हुई उसी की थी
हक़ तो है कि हक़ अदा न हुआ
ज़ख़्म गर दब गया लहू न थमा
काम गर रुक गया रवां न हुआ
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(दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ)
दर्द दवा की मिन्नतों से भी कम न हुआ
बहर - समन्दर
रकीब - दुश्मन, विरोधी
गिला - शिकायत
ख़न्जर-आज़मा - ख़न्जर आज़माने वाला
रवां - जारी, शुरू
-: बशी़र बद्र :-
किसे ख़बर थी तुझे इस तरह सताऊंगा
ज़माना देखेगा और मैं न देख पाऊंगा
हयातो मौत फिराको विसाल सब यक़ज़ा
मैं एक रात में कितने दिये जलाऊंगा
पला बढ़ा हूं तक इन्हीं अंधेरों में
मैं तेज़ धूप से कैसे नज़र मिलाऊंगा
मेरे मिजाज़ की मादराना फितरत है
सवेरे सारी अज़ीयत मैं भूल जाऊंगा
तुम एक पेड़ से बाबस्ता हो मगर मैं तो
हवा के साथ दूर दूर जाऊंगा
मेरा ये अहद है मैं आज शाम होने तक
जहां से रिज़्क लिखा है वहीं से लाऊंगा
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ये चराग़ बे नज़र है सितारा बे ज़ुबां है
अभी तुम से मिलता जुलता कोई दूसरा कहां है
वही शख़्स जिस पे अपने दिलो जां निसार कर दूं
वो अगर ख़फ नहीं है तो ज़रूर बदगुमां है
मेरे साथ चलने वाले तुझे क्या मिला सफर में
वही दुख भरी ज़मीं है वही ग़म का आसमां है
मैं इसी गुमां में बरसों बड़ा मुत्मईन रहा
तेरा जिस्म बेतग़इयुर मेरा प्यार जाविदा है
उन्हीं रास्तों ने जिन पर कभी तुम थे साथ मेरे
मुझे रोक रोक के पूछा तेरा हमसफर कहां है
बेतग़इयुर - अपरिवर्तनशील
जाविदा - अमर
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शुक्रिया आप सब का जिन्होंने मेरी होसला-अफज़ाई की ब्लाग पर आये, और अपनी राय ज़ाहिर की मैं चाहता हूं कि आप तक मैं जाने अन्जाने मशहूर और गुमनाम शायरों की बेहतरीन और लाजवाब शायरी पहुचाऊं, इसलिए मैं आप तक लाजवाब ग़ज़लों को पहुंचा रहा हूं जो आप के दिल की ज़बां बने, और अगर मैं आप तक ऎसे कुछ लफ्ज़ पहुंचा पाया जो आप को ज़िन्दगी भर याद रहें तो मैं अपनी कोशिश को कामयाब समझूंगा ।
आपका : A.U.SIDDIQUI
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