सफ़र की दर्द भरी दास्तान रख दूंगा
मैं पत्थरों पे लहू का निशान रख दूंगा
ये आग शहर की गर मैं बुझा न पाया तो
दहकते शोलों पे अपना मकान रख दूंगा
तुझे ज़मीन की तंगी सता न पायेगी
मैं तेरे दिल में खुला आसमान रख दूंगा
उड़े तो आख़री कोना गगन का छू के दिखायें
कटे परों में बला की उड़ान रख दूंगा
वो एक बार इशारा तो करें खामोशी का
मैं ख़ुद काट के अपनी ज़बान रख दूंगा
6 comments:
very good
Very Good..............
Manoj Kumar
said...... vrey good your welcome
Good very very Good http://connected.jimdo.com
bahut khub...
nice
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महफ़िल में आपका इस्तक़बाल है।