Wednesday, November 18, 2009

अब ये होगा शायद

अब ये होगा शायद अपनी आग में ख़ुद जल जायेंगे

तुम से दूर बहुत रहकर भी क्या खोया क्या पायेंगे

दुख भी सच्चे सुख भी सच्चे फिर भी तेरी चाहत में

हमने कितने धोके खाये कितने धोके खायेंगे

अक़्ल पे हम को नाज़ बहुत था लेकिन कब ये सोचा था

इश्क के हाथों ये भी होगा लोग हमें समझायेंगे

कल के दुख भी कौनसे बाक़ी आज के दुख भी कै दिन के

जैसे दिन पहले काटे थे ये दिन भी कट जायेंगे

हम से आबला-पा जब तन्हा घबरायेंगे सहरा में

रास्ते सब तेरे ही घर की जानिब को मुड़ जायेंगे

आंख़ों से औझल होना क्या दिल से औझल होना है

मुझसे छूट कर भी अहले ग़म क्या तुझसे छुट जायेंगे

-अहमद हमदानी

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आबला-पा - पांव के छालों वाले

जानिब - तरफ

2 comments:

मनोज कुमार said...

इस ग़ज़ल को पढ़ कर मैं वाह-वाह कर उठा।

Unknown said...

gd yar

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महफ़िल में आपका इस्तक़बाल है।