अब ये होगा शायद अपनी आग में ख़ुद जल जायेंगे
तुम से दूर बहुत रहकर भी क्या खोया क्या पायेंगे
दुख भी सच्चे सुख भी सच्चे फिर भी तेरी चाहत में
हमने कितने धोके खाये कितने धोके खायेंगे
अक़्ल पे हम को नाज़ बहुत था लेकिन कब ये सोचा था
इश्क के हाथों ये भी होगा लोग हमें समझायेंगे
कल के दुख भी कौनसे बाक़ी आज के दुख भी कै दिन के
जैसे दिन पहले काटे थे ये दिन भी कट जायेंगे
हम से आबला-पा जब तन्हा घबरायेंगे सहरा में
रास्ते सब तेरे ही घर की जानिब को मुड़ जायेंगे
आंख़ों से औझल होना क्या दिल से औझल होना है
मुझसे छूट कर भी अहले ग़म क्या तुझसे छुट जायेंगे
-अहमद हमदानी
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आबला-पा - पांव के छालों वाले
जानिब - तरफ
2 comments:
इस ग़ज़ल को पढ़ कर मैं वाह-वाह कर उठा।
gd yar
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महफ़िल में आपका इस्तक़बाल है।