Tuesday, November 17, 2009

मिर्ज़ा असदुल्ला ख़ां "ग़ालिब"

शायरे आज़म

-: मिर्ज़ा असदुल्ला ख़ां "ग़ालिब"

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सितारे जो समझते हैं ग़लतफहमी है उनकी ।

फ़लक पे आह पहुंची है मेरी, चिंगारिय़ां होकर ॥

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घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां होता

बहर अगर बहर न होता तो दरिया होता

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दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ

मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ

जमा करते हो क्य़ूं रकीबों को

इक तमाशा हुआ, गिला न हुआ

हम कहां किस्मत आज़माने जायें

तू ही जब ख़न्जर-आज़मा न हुआ

जान दी, दी हुई उसी की थी

हक़ तो है कि हक़ अदा न हुआ

ज़ख़्म गर दब गया लहू न थमा

काम गर रुक गया रवां न हुआ

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(दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ)

दर्द दवा की मिन्नतों से भी कम न हुआ

बहर - समन्दर

रकीब - दुश्मन, विरोधी

गिला - शिकायत

ख़न्जर-आज़मा - ख़न्जर आज़माने वाला

रवां - जारी, शुरू

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