शायरे आज़म
-: मिर्ज़ा असदुल्ला ख़ां "ग़ालिब"
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सितारे जो समझते हैं ग़लतफहमी है उनकी ।
फ़लक पे आह पहुंची है मेरी, चिंगारिय़ां होकर ॥
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घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां होता
बहर अगर बहर न होता तो दरिया होता
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दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
जमा करते हो क्य़ूं रकीबों को
इक तमाशा हुआ, गिला न हुआ
हम कहां किस्मत आज़माने जायें
तू ही जब ख़न्जर-आज़मा न हुआ
जान दी, दी हुई उसी की थी
हक़ तो है कि हक़ अदा न हुआ
ज़ख़्म गर दब गया लहू न थमा
काम गर रुक गया रवां न हुआ
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(दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ)
दर्द दवा की मिन्नतों से भी कम न हुआ
बहर - समन्दररकीब - दुश्मन, विरोधी
गिला - शिकायत
ख़न्जर-आज़मा - ख़न्जर आज़माने वाला
रवां - जारी, शुरू
1 comments:
nice
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महफ़िल में आपका इस्तक़बाल है।