Friday, November 27, 2009

एक शायर


सफ़र    की   दर्द   भरी दास्तान रख दूंगा


मैं पत्थरों पे लहू का निशान रख दूंगा






ये आग शहर की गर मैं बुझा न पाया तो


दहकते    शोलों   पे अपना मकान रख दूंगा






तुझे   ज़मीन    की    तंगी   सता    न    पायेगी


मैं   तेरे   दिल   में   खुला आसमान रख दूंगा






उड़े तो आख़री कोना गगन का छू के दिखायें


कटे   परों  में   बला   की      उड़ान    रख    दूंगा






वो   एक   बार   इशारा   तो    करें    खामोशी    का


मैं    ख़ुद   काट   के    अपनी   ज़बान   रख     दूंगा




 

6 comments:

Anonymous said...

very good

Unknown said...

Very Good..............

Manoj Kumar

Unknown said...

said...... vrey good your welcome

http://connected.jimdo.com said...

Good very very Good http://connected.jimdo.com

Mohit Bagaria said...

bahut khub...

Your love said...

nice

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महफ़िल में आपका इस्तक़बाल है।