Thursday, December 31, 2009

एक शायर

रात भर एक जिस्म था जिस पर कई ख़न्जर चले

दिन निकल आया तो हर सिम्त से पत्थर चले


अपने सब मंज़र लुटा कर शाम रुख़्सत हो गई

तुम भी वापस लौट जाओ हम भी अपने घर चले


नींद की सारी तन्नाबें टूट कर गिरती गईं

मुझ को तन्हा छोड़ कर ख़्वाबों के सब पैकर चले


क़र्ब जब तख़लीक का हद से सवा होने लगा

अपने फ़न को नामुकम्मल छोड़ कर आज़र चले


कोई सूरत हो के टूटे भी सुकूते दिल "शमीम"

यह आंधी जिस्म के बाहर है अब अंदर चले


                                                -:  शमीम फ़ारुक़ी

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सिम्त :  दिशा
तन्नाबें :  रस्सी
पैकर :  आकार
कर्ब :  वेदना
तख़लीक़ : रचना
फ़न :  कला
नामुकम्मल : अधूरा
आज़र :  पीड़ित
सुकूते दिल : दिल की शान्ति

8 comments:

अंकित कुमार पाण्डेय said...

bahut hi umda hai ye

मनोज कुमार said...

एक बहुत अच्छी ग़ज़ल के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद
आपको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।

zeashan haider zaidi said...

Bahut Khoob!

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा!!

Himanshu Pandey said...

"कोई सूरत हो के टूटे भी सुकूते दिल "शमीम"
यह आंधी जिस्म के बाहर है अब अंदर चले"

बेहद खूबसूरत ! प्रस्तुति का आभार ।

Mohammed Umar Kairanvi said...

आपका यह ब्‍लाग भी ब्‍लागवाणी पर रजिस्‍टर हो गया, बधाई, उम्‍मीद है कुछ तो बदलोगे

नीरज गोस्वामी said...

बेहतरीन ग़ज़ल...वाह
नीरज

गौतम राजऋषि said...

पहली बार आ रहा हूं\ ये तो खजाना है भई...

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