रात भर एक जिस्म था जिस पर कई ख़न्जर चले
दिन निकल आया तो हर सिम्त से पत्थर चले
अपने सब मंज़र लुटा कर शाम रुख़्सत हो गई
तुम भी वापस लौट जाओ हम भी अपने घर चले
नींद की सारी तन्नाबें टूट कर गिरती गईं
मुझ को तन्हा छोड़ कर ख़्वाबों के सब पैकर चले
क़र्ब जब तख़लीक का हद से सवा होने लगा
अपने फ़न को नामुकम्मल छोड़ कर आज़र चले
कोई सूरत हो के टूटे भी सुकूते दिल "शमीम"
यह आंधी जिस्म के बाहर है अब अंदर चले
-: शमीम फ़ारुक़ी
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सिम्त : दिशा
तन्नाबें : रस्सी
पैकर : आकार
कर्ब : वेदना
तख़लीक़ : रचना
फ़न : कला
नामुकम्मल : अधूरा
आज़र : पीड़ित
सुकूते दिल : दिल की शान्ति
8 comments:
bahut hi umda hai ye
एक बहुत अच्छी ग़ज़ल के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद
आपको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
Bahut Khoob!
बहुत उम्दा!!
"कोई सूरत हो के टूटे भी सुकूते दिल "शमीम"
यह आंधी जिस्म के बाहर है अब अंदर चले"
बेहद खूबसूरत ! प्रस्तुति का आभार ।
आपका यह ब्लाग भी ब्लागवाणी पर रजिस्टर हो गया, बधाई, उम्मीद है कुछ तो बदलोगे
बेहतरीन ग़ज़ल...वाह
नीरज
पहली बार आ रहा हूं\ ये तो खजाना है भई...
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महफ़िल में आपका इस्तक़बाल है।