Friday, November 20, 2009

दिल की दूआ




लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी


ज़िन्दगी शम्मा की सूरत हो ख़ुदाया मेरी



हो मेरे दम से यूं ही मेरे वतन की ज़ीनत


जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत


ज़िन्दगी हो मेरी परवाने की सूरत या रब


इल्म की शम्मा से हो मुझको मुहब्बत या रब


हो मेरा काम ग़रीबों की हिमायत करना


दर्दमन्दों से ज़ईफों से मुहब्बत करना


मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको


नेक जो राह हो उस रह पर चलाना मुझको



मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको


नेक जो राह हो उस रह पर चलाना मुझको......


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दर्दमन्दों - जो पीड़ा में हों


ज़ईफों - बुज़ुर्गों

2 comments:

मनोज कुमार said...

भावावेग की स्थिति में अभिव्यक्ति की स्वाभाविक परिणति दीखती है।

aarkay said...

दिल की इतनी दुआ कबूल हो जाये तो क्या कहना .
यह नज़्म मेरे पिताजी के समय में स्कूल में बतौर सुबह की प्रार्थना गायी जाती थी

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