Thursday, December 31, 2009
एक शायर
Saturday, December 26, 2009
जिगर मुरादाबादी
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आज कुछ दर्द में कमी क्या है
जिस्म महदूद , रूह ला - महदूद
- जिगर मुरादाबादी
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Tuesday, December 22, 2009
दुनिया सजी हुई है
दुनिया मुझे छुपाए है आज़ार की तरह
मेरी किताबे ज़ीस्त तुम एक बार तो पढ़ो
फिर चाहे फैंक दो किसी अख़बार की तरह
अब ज़िन्दगी की धूप भी सीधा करेगी क्या
अब तक तो कज़ रहा तेरी दस्तार की तरह
- सबा जायसी
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आसार - खंडहर
नुमाया - उजागर
आज़ार - पीढ़ा
ज़ीस्त - ज़िन्दगी
कज - टेढ़ा
दस्तार - पगड़ी
Saturday, December 19, 2009
एक ग़ज़ल
- अहमद फराज़
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Thursday, December 17, 2009
मीना कुमारी
धज्जी-धज्जी रात मिली।
उतनी ही सौग़ात मिली।।
हंसने की आवाज़ सुनी।
फिर तुमको अब मात मिली।।
चलते रहना आठ पहर।
बेचैनी भी साथ मिली।।
Thursday, December 17, 2009
एक शायर
Tuesday, December 15, 2009
जीना है कैसे मुझको
Saturday, December 12, 2009
एक शायर
Thursday, December 10, 2009
एक ग़ज़ल
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Wednesday, December 9, 2009
एक ग़ज़ल
Sunday, December 6, 2009
कहा न जाए
Saturday, December 5, 2009
एक ग़ज़ल
Wednesday, December 2, 2009
उसके दुश्मन हैं बहुत
Friday, November 27, 2009
एक शायर
मैं पत्थरों पे लहू का निशान रख दूंगा
दहकते शोलों पे अपना मकान रख दूंगा
मैं तेरे दिल में खुला आसमान रख दूंगा
कटे परों में बला की उड़ान रख दूंगा
मैं ख़ुद काट के अपनी ज़बान रख दूंगा
Thursday, November 26, 2009
एक शायर
कहीं ऎसा न हो दामन जला लो
हमारे आंसुऔं पर ख़ाक डालो
मनाना ही ज़रूरी है तो फिर तुम
हमें सबसे ख़फ़ा हो कर मना लो
बहुत रोई हुई लगती हैं आंखें
मेरी ख़ातिर ज़रा काजल लगा लो
अकेलेपन से खौ़फ आता है मुझको
कहां हो ऎ मेरे ख़ाबों - ख़यालों
बहुत मायूस बैठा हूं मैं तुमसे
कभी आकर मुझे हैरत में डालो ॥
- लियाकत अली अज़ीम
Tuesday, November 24, 2009
जब किसी से कोई गिला रखना
Sunday, November 22, 2009
मेरे शहर के शायर..
Saturday, November 21, 2009
हमने जुनूने इश्क में
ता - उम्र तेरे साथ चले बनके हमसफर
Friday, November 20, 2009
दिल की दूआ

लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी
ज़िन्दगी शम्मा की सूरत हो ख़ुदाया मेरी
हो मेरे दम से यूं ही मेरे वतन की ज़ीनत
जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत
ज़िन्दगी हो मेरी परवाने की सूरत या रब
इल्म की शम्मा से हो मुझको मुहब्बत या रब
हो मेरा काम ग़रीबों की हिमायत करना
दर्दमन्दों से ज़ईफों से मुहब्बत करना
मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको
नेक जो राह हो उस रह पर चलाना मुझको
मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको
नेक जो राह हो उस रह पर चलाना मुझको......
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दर्दमन्दों - जो पीड़ा में हों
ज़ईफों - बुज़ुर्गों
Wednesday, November 18, 2009
दिल का रोना ठीक नहीं
दिल का रोना ठीक नहीं है,
मुंह को कलेजा आने दो
थमते थमते अश्क थमेंगे,
नासेह को समझाने दो
कहते ही कहते हाल कहेंगे,
ऐसी तुम्हें क्या जल्दी है
दिल को ठिकाने होने दो,
और आप में हमको आने दो
खु़द से गिरेबां फटते थे,
अक्सर चाक हवा में उड़ते थे
अब के जुनूं को होश नहीं है,
आई बहार तो आने दो
अगर दिल गुमगुश्ता में,
ठंडी आहें भरता था
हंस के सितमगर कहता क्या है,
बात ही क्या है जाने दो
दिल के असर को लूट लिया है,
शोख़ निगाह एक काफिर ने
कोई ना इसको रोने से रोको,
आग लगी है बुझाने दो
- असर लखनवी
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नासेह - नसीहत देने वाला
गुमगुश्ता - डूबा हूआ
सितमगर - अत्याचारी
काफिर - नास्तिक
Wednesday, November 18, 2009
अब ये होगा शायद
अब ये होगा शायद अपनी आग में ख़ुद जल जायेंगे
तुम से दूर बहुत रहकर भी क्या खोया क्या पायेंगे
दुख भी सच्चे सुख भी सच्चे फिर भी तेरी चाहत में
हमने कितने धोके खाये कितने धोके खायेंगे
अक़्ल पे हम को नाज़ बहुत था लेकिन कब ये सोचा था
इश्क के हाथों ये भी होगा लोग हमें समझायेंगे
कल के दुख भी कौनसे बाक़ी आज के दुख भी कै दिन के
जैसे दिन पहले काटे थे ये दिन भी कट जायेंगे
हम से आबला-पा जब तन्हा घबरायेंगे सहरा में
रास्ते सब तेरे ही घर की जानिब को मुड़ जायेंगे
आंख़ों से औझल होना क्या दिल से औझल होना है
मुझसे छूट कर भी अहले ग़म क्या तुझसे छुट जायेंगे
-अहमद हमदानी
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आबला-पा - पांव के छालों वाले
जानिब - तरफ
Wednesday, November 18, 2009
इंसान
इंसान में हैवान
यहां भी है वहां भी
अल्लाह निगेहबान
यहां भी है वहां भी
खूंखार दरिन्दो के
फ़क़त नाम हैं अलग
शहरों में बियाबान
यहां भी है वहां भी
रहमान की कुदरत हो
या भगवान की मूरत
हर खेल का मैदान
यहां भी है वहां भी
हिन्दू भी मज़े में
हैं मुसलमां भी मज़े में
इन्सान परेशान
यहां भी है वहां भी
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निदा फ़ाज़ली
Tuesday, November 17, 2009
मिर्ज़ा असदुल्ला ख़ां "ग़ालिब"
शायरे आज़म
-: मिर्ज़ा असदुल्ला ख़ां "ग़ालिब"
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सितारे जो समझते हैं ग़लतफहमी है उनकी ।
फ़लक पे आह पहुंची है मेरी, चिंगारिय़ां होकर ॥
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घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां होता
बहर अगर बहर न होता तो दरिया होता
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दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
जमा करते हो क्य़ूं रकीबों को
इक तमाशा हुआ, गिला न हुआ
हम कहां किस्मत आज़माने जायें
तू ही जब ख़न्जर-आज़मा न हुआ
जान दी, दी हुई उसी की थी
हक़ तो है कि हक़ अदा न हुआ
ज़ख़्म गर दब गया लहू न थमा
काम गर रुक गया रवां न हुआ
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(दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ)
दर्द दवा की मिन्नतों से भी कम न हुआ
बहर - समन्दर
रकीब - दुश्मन, विरोधी
गिला - शिकायत
ख़न्जर-आज़मा - ख़न्जर आज़माने वाला
रवां - जारी, शुरू
Sunday, November 15, 2009
मेरे शहर के शायर
-: बशी़र बद्र :-
किसे ख़बर थी तुझे इस तरह सताऊंगा
ज़माना देखेगा और मैं न देख पाऊंगा
हयातो मौत फिराको विसाल सब यक़ज़ा
मैं एक रात में कितने दिये जलाऊंगा
पला बढ़ा हूं तक इन्हीं अंधेरों में
मैं तेज़ धूप से कैसे नज़र मिलाऊंगा
मेरे मिजाज़ की मादराना फितरत है
सवेरे सारी अज़ीयत मैं भूल जाऊंगा
तुम एक पेड़ से बाबस्ता हो मगर मैं तो
हवा के साथ दूर दूर जाऊंगा
मेरा ये अहद है मैं आज शाम होने तक
जहां से रिज़्क लिखा है वहीं से लाऊंगा
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ये चराग़ बे नज़र है सितारा बे ज़ुबां है
अभी तुम से मिलता जुलता कोई दूसरा कहां है
वही शख़्स जिस पे अपने दिलो जां निसार कर दूं
वो अगर ख़फ नहीं है तो ज़रूर बदगुमां है
मेरे साथ चलने वाले तुझे क्या मिला सफर में
वही दुख भरी ज़मीं है वही ग़म का आसमां है
मैं इसी गुमां में बरसों बड़ा मुत्मईन रहा
तेरा जिस्म बेतग़इयुर मेरा प्यार जाविदा है
उन्हीं रास्तों ने जिन पर कभी तुम थे साथ मेरे
मुझे रोक रोक के पूछा तेरा हमसफर कहां है
बेतग़इयुर - अपरिवर्तनशील
जाविदा - अमर
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